Zenab rehan

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अठारहवाँ अध्याय




इसके बाद 54वें श्लोक में उस ज्ञान या आत्मदर्शन का स्वरूप कहके 55वें में कारण बताया है कि क्यों उसे पूर्ण ज्ञान, ज्ञाननिष्ठा या आत्मदर्शन कहते हैं। उसका परिणाम भी कह दिया है कि आत्मा ब्रह्मरूप ही हो जाती है, उसी में मिल जाती है।

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौंतेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥ 50 ॥

बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृ त्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥ 51 ॥

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।

ध्‍यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥ 52 ॥

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रो धं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्मम: शांतो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ 53 ॥

(इस प्रकार पूर्ण नैष्कर्म्य की) सिद्धि प्राप्त कर लेने पर (मनुष्य) जिस तरह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है और जिसे परले दर्जे की ज्ञाननिष्ठा कहते हैं वह मुझसे जान लो। निर्मल सात्त्विक बुद्धिवाला (मनुष्य) (सात्त्विक) धैर्य के बल से मन को रोक के, शब्द आदि (इंद्रियों के) विषयों को छोड़ के और रागद्वेष को हटा के एकांत देश का सेवन करते, हलका भोजन करते तथा जबान, मन और शरीर को काबू में रखे हुए निरंतर ध्‍यानयोग में ही दत्तचित्त होता एवं वैराग्य को पक्का कर लेता है। (फलत:) अहंकार, बलप्रयोग, ऐंठ, काम, क्रोध और सभी लवाज़िम से नाता तोड़े हुए, ममतारहित (तथा पूर्ण) शांतियुक्त हो के ब्रह्म का रूप हो जाता है। 50। 51। 52। 53।

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥ 54 ।

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तद नंत रम्॥ 55 ।

ब्रह्मस्वरूप निर्मल मनवाला (मनुष्य) न तो कोई चिंता रखता है, न इच्छा। वह सभी पदार्थों में समदृष्टि-रूप मेरी परमभक्ति पा जाता है। मुझ आत्मा-ब्रह्म का जो भी और जैसा भी स्वरूप है उसे इस समदर्शन रूप भक्ति के बल से अच्छी तरह जान जाता है (और) (इस तरह) मेरे तत्त्वज्ञान के बाद ही फौरन मुझमें प्रवेश कर जाता है। 54। 55।

यहाँ भक्ति को परा कहा है। इसका अर्थ है सबसे ऊँचे दर्जे की भक्ति, जिसे 'ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्' (7। 18) में पूर्ण ज्ञान कहा है और जिसका स्वरूप 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19) बताया है। यदि परा भक्ति न हो तो वहाँ निचले दर्जे के तीन भक्त गिनाए हैं उन्हीं वाली भक्ति हो जाएगी। यहाँ भी उसका रूप 'सम: सर्वेषु भूतेषु' कह दिया है। इसीलिए उसका पूरा विवरण भी 'भक्त्या मामभिजानाति' में कर दिया है, जिसमें कोई शकशुभा रही न जाए। मुझमें प्रवेश करने का अर्थ कहीं जाना-आना नहीं। इसीलिए 'मयि विशते' न कह के 'मां विशते' कहा है। इसका ठीक-ठीक अर्थ 'समुद्रमाप: प्रविशंति' (2। 70) जैसा ही है। वहाँ भी वही द्वितीयांत है जैसा यहाँ।

इस प्रकार जब आत्मदर्शी और ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है तो उसकी क्या दशा होती है यह प्रश्न स्वभावत: उठता है और उसका उत्तर जरूरी हो जाता है। उसकी दोई हालतें हो सकती हैं। वह वामदेव, शुकदेव आदि की तरह बिलकुल ही मस्तराम हो सकता है। फिर तो कोई सुधबुध उसे रही न जाएगी। उसी की बात 'यस्त्वात्मरतिरेव' (3। 16) में कही जा चुकी है। असल में ऐसे लोग एक तो कम होते ही हैं। क्योंकि जीते-जी मुर्दा बनना आसान नहीं। यह बड़ी ही दुर्लभ बात है। दूसरे व्यावहारिक दुनिया में आमतौर से न तो उन्हें लोग पहचानी सकते और न उनसे कोई फायदा ही उठा सकते । गीता को व्यावहारिक संसार की ही ज्यादा परवाह भी है। अर्जुन के लिए यही उपयुक्त भी था। प्रथमत: तो उसी को यह उपदेश दिया भी गया है। इसीलिए मस्तरामों की बात फिर कहने की कोई खास जरूरत रही नहीं गई थी, हालाँकि अगले श्लोक में उनकी भी बात है, यह आगे स्पष्ट हो जाएगा। उनके बारे में किसी को कोई शकशुभा भी तो नहीं हो सकता कि वह निर्वाण मोक्ष प्राप्त करेंगे या नहीं। मगर जिनकी दूसरी हालत होती है और जो लोकसंग्रह करते हैं उनका व्यवहार में पूरा उपयोग होने के साथ ही उनके बारे में यह खयाल हो सकना स्वाभाविक है कि जब वे जनसाधारण की ही तरह सब कुछ करते-धरते नजर आते हैं, तो उन्हें निर्वाण मुक्ति कैसे होगी? फलत: इन्हीं के बारे में अंत में स्पष्टतया कह देना जरूरी हो गया कि चाहे वह कहीं किसी भी दशा में रहें और कुछ भी करते रहें, फिर भी परम धाम, शाश्वत पद या निर्वाण मुक्ति उनके लिए धरी-धराई ही है। यही बात आगे के पाँच श्लोकों में कही गई है। अर्जुन को यह भी कह दिया गया है कि तुम्हारे जैसों के लिए तो यही रास्ता है। दूसरा हई नहीं। इसीलिए यदि तुमने नादानी की और दूसरा मार्ग लिया, तो चौपट हो जाओगे। यह भी बात है कि तुम ऐसा कर भी नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारी तो क्षत्रियवाली प्रकृति है। इसलिए वह तुम्हें युद्ध से अलग जाने न देगी। प्रत्युत इसी में तुम्हें जरूर जोत देगी।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रय:।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥ 56 ॥

सदा सभी तरह के कर्मों को करता हुआ भी मेरा स्वरूप बना हुआ (ऐसा मनुष्य) मेरी कृपा से - आत्मसाक्षात्कार के फलस्वरूप - निर्विकार शाश्वत पद - मोक्ष - पा जाता है। 56।

इसीलिए अर्जुन को आगे स्पष्ट उपदेश दिया गया है कि तुम मोक्ष या परलोक की चिंता छोड़ के जैसा कहा जाता है करो और आत्मदर्शन, जिसे बुद्धियोग, ज्ञानयोग और सांख्ययोग भी कहते हैं, के बदले सभी कर्मों को भगवान को सौंप के उनकी जवाबदेही से अलग हो जाओ। अब तक जो तुम समझते थे कि आत्मा में ही कर्म हैं उसे गलत समझ कर्म को भगवान में फेंक के भस्म कर दो और आत्मा के सिवाय और कुछ देखो ही मत। इस तरह यहाँ कर्मों को आत्मा में न रहने देने या न मानने की बात का उपसंहार भी साफ-साफ हो जाता है। इस 57वें श्लोक का आशय पहले ही बताया जा चुका है।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥ 57 ॥

मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चे त्त्व महंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि॥ 58 ॥

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥ 59 ॥

स्वभावजेन कौंतेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।

क र्त्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥ 60 ॥

(इसी ज्ञानयोग की शरण जा के) मन और हृदय से सभी कर्मों को परमात्मा में समर्पित करो, उसी में चित्त लगाओ और उससे बढ़ के और कुछ न जानो। परमात्मा में चित्त लगाने से उसी की कृपा से - आत्मज्ञान के ही प्रताप से - सभी संकटों से पार हो जाओगे। लेकिन यदि घमंड में आ के (मेरी यह बात) न सुनोगे तो चौपट हो जाओगे। (इतना ही नहीं) अगर अहंकार में आ के तुमने नहीं ही लड़ने का निश्चय किया भी तो तुम्हारा यह उद्योग - यह निश्चय - झूठा होगा - व्यर्थ होगा (और) तुम्हारा स्वभाव तुम्हें (लड़ाई में) डाल के ही रहेगा। (क्योंकि) हे कौंतेय, अपने स्वाभाविक कर्म के साथ जकड़े होने के कारण यदि यह काम - युद्ध - भूल से नहीं भी करना चाहो तो भी मजबूरन तुम्हें इसे करना ही होगा। 57। 58। 59। 60।

कर्मों का भगवान में संन्यास या अर्पण क्या चीज है और इस तरह आत्मा से उनका कैसे संबंध छूट जाता है इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है।

वहाँ जो बार-बार 'मयि', 'मत' आदि शब्दों के द्वारा परमात्मा का उल्लेख किया गया है उससे शायद लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ईश्वर या परमात्मा कोई दूसरा पदार्थ है जो कहीं अन्यत्र रहता है। उसी में मन लगाने और उसे ही कर्मों को अर्पण करने की बात कही गई है। क्योंकि यदि वह आत्मा का स्वरूप ही हो तो कर्मों को आत्मा में ही रखना हो जाएगा न? संन्यस्य शब्द जो पहले 57वें श्लोक में आया है उसका तो अर्थ ही है धरोहर या थाती रखना। ऐसी दशा में अब तक का यह कहना व्यर्थ हो जाएगा कि आत्मा में कर्म रहता ही नहीं, उसका कर्म से ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए ईश्वर को अलग ही मानना ठीक है।

मगर ऐसा समझने वालों के सामने भी तो यह दिक्कत रही जाती है कि आत्मा या जीव का कर्म, या यों कहिए कि मनुष्यों का कर्म वहाँ कैसे रखा जाएगा? और जब पहले ही कह दिया है कि 'न च मां तानि कर्माणि' (9। 9) - 'इन कर्मों से मेरा कोई ताल्लुक हई नहीं', तो फिर कर्म उसमें रहने पाएँगे कैसे? यदि यह कहा जाए कि ईश्वर तो कर्मों के लिए अग्नि जैसा ही है, और भस्म हो जाने के लिए ही उसमें कर्म डाल दिए जाते हैं, तो यह बात तो 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा' (4। 37) के द्वारा पहले ही कह दी गई है कि आत्मज्ञान के द्वारा ही सभी कर्म दुग्ध हो जाते हैं। इसलिए एक तो ईश्वर में डालने का भी अर्थ समदर्शन ही होगा। दूसरे ईश्वर आत्मा से जुदा फिर भी सिद्ध न होगा। फिर तो वह शंका बेबुनियाद ही सिद्ध होगी।


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